मंगलवार, 17 जुलाई 2012

आलेख


पुरुष वर्चस्व तोड़ने का समय
छाया चन्देल

फिर दिल दहला देने वाली घटना. एक मां ने बेटे के साथ मिलकर बेटी की हत्या झूठी शान के लिए कर दी. इस प्रकार की यह  पहली घटना नहीं थी इसलिए भी इसने पुराने जख्मों को हरा कर दिया. लड़कियां कैसे इसप्रकार की पाशविकता का  सहज शिकार बना दी जाती हैं---घर में भी और बाहर भी.  कैसे कोई छोटा भाई बड़ी बहन की हत्या सिर्फ पुरुषवादी मानसिकता के कारण  कर देता है! क्यों मांएं भी इस पुरुषवादी मानसिकता के साथ खड़ी हो जाती हैं! मां, जिसने उसे जन्म दिया और जो स्वयं एक दिन एक लड़की ही थी, अपनी बेटी की हत्या में बेटे का साथ देती हुई अपराध बोध का शिकार नहीं होती? ऎसा नहीं कि यह सब अशिक्षित और अर्द्धशिक्षित परवारों में हो रहा है या दूर-दराज के गांवों में. महानगरों में उच्च-शिक्षित और संभ्रांत परिवारों में भी जब ऎसा हो रहा है तब सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि क्या देश आज भी सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में जी रहा है? पंजाब की कोई पायेदार मंत्री जब अपनी बेटी के साथ ऎसी घटना को अंजाम देकर पांच वर्ष कारावास की  सजा पा जाती है तब मन में यह अहसास जन्म लेता है कि कहने के लिए ही हम आधुनिक हुए हैं. जाति-पात विहीन समाज का नारा देकर वोट समेटने वाले  नेता वास्तव में  क्रूर सांमती युग में ही जी रहे हैं. देश का नेतृत्व करने वालों का जब यह हाल है तब परंपराओं और रूढ़ियों में आकंठ डूबी आम जनता की सोच बेटियों को कूड़ा समझने से ऊपर कैसे हो सकती है. नारी को देवी,लक्ष्मी, दुर्गा आदि काल्पनिक उपाधियों से विभूषित करने वाले पुरुषवादी भारतीय समाज का यह छद्म उसे अपने  नियंत्रण में रखने का षडयंत्र है और जो भी लड़की उसके इस षडयंत्र को समझ उसे चुनौती देती है अपनी मृत्यु की वसीयत पर हस्ताक्षर कर रही होती है. जाति-पात और धर्म के खोखले आडंबर के नर्क में डूबे इस समाज के रक्तपिपासु यह बर्दाश्त करने को तैयार नहीं कि वह किसी विजातीय से जिसे वह चाहती है विवाह करे. ऎसा ही तो घटित हुआ था दीप्ति  के साथ जिसकी सजा उसके भाई और मां ने मिलकर उसे मौत के रूप में दी थी.


 

प्रतिदिन घटती ऎसी घटनाएं हृदय और मस्तिष्क पर हथौड़ा-सा मारती हैं कि कब लड़कियों को उनकी पहचान मिलेगी? कब उनके निर्णयों,उनकी भावनाओं और इच्छाओं को सम्मान मिलेगा! स्वावलंबी अच्छी-भली  दीप्ति (वह सरकारी विद्यालय में शिक्षिका थी) को सिर्फ अपनी पसंद और चाहने वाले लड़के से विवाह  करने पर उससे उसका जीवन छीन लिया गया. परिवार के लोग एक अजनबी से लड़की का विवाह कर सकते हैं, कर देते हैं क्योंकि वह उनकी जाति का होता है भले ही वह उस लड़की के योग्य न हो, लेकिन लड़की यदि किसी को पसंद करती है तो वह परिवार को स्वीकार नहीं होता.

जातियों और समुदायों में बटा हमारा समाज कैसे उन्नति कर सकता है! आश्चर्य है कि ऎसी घटनाएं समाज के किसी भी वर्ग को झकझोरती नहीं –उन्हें शर्मिन्दा नहीं करती---और इसीलिए दिन-प्रतिदिन ये घटित हो रही हैं. खाप पंचायतों के निर्णय मध्यकालीन युग की याद ताजा कर देते हैं. खाप प्रेमी जोड़े को मार देने के तालिबानी निर्णय सुनाते हैं और प्रायः लड़कीवाले उसके निर्णय को त्वरितता के साथ कार्यान्वित भी कर डालते हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में खाप पंचायतें इतनी शक्तिशाली हैं कि व्यवस्था उनके समक्ष अपने को पंगु पा रही हैं. उनके निर्णयों के कार्यान्वयन के बाद व्यवस्था कुंभकर्ण की नींद से अंगड़ाई लेती हुई जागती है. दो-चार धर-पकड़ होती हैं और मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है, क्योंकि खाप पंचायतों में दो-चार व्यक्ति नहीं सैकड़ों की संख्या में लोग जुड़े होते हैं----किसी खास जाति के लोग. वोट की राजनीति उन्हें कैसे नाराज कर सकती है! खाप पंचायतों को नाराज करने की अपेक्षा किसी युवती-युवक के जीने का हक छीन लिया जाना व्यवस्था के लिए अधिक मायने नहीं रखता.

हाल में बागपत के एक गांव की खाप पंचायत ने महिलाओं के विषय में जो निर्णय सुनाए वे मध्ययुगीन जीवन को भी शर्मसार करने वाले हैं. उसके फरमान तालिबानों की याद ताजा करते हैं. लड़कियों-महिलाओं के सभी मौलिक अधिकारों को उनसे छीनने की बात है. वे मोबाइल नहीं रख सकतीं. घर से अकेली नहीं निकल सकतीं---घर का कोई पुरुष साथ होना चाहिए. पर्दा आवश्यक है—आदि—आदि.  महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, शोषण, दमन की अटूट श्रृखंला है और उस सबसे मुक्ति के लिए उन्हें ही आगे आना होगा.



 (ऋतु जगलान)


 इस तिमिरमय और हताशापूर्ण दौर में हरियाणा के बीबीपुर गांव की पच्चीस वर्षीया ऋतु जगलान ने एक मशाल जलायी और अचानक उस गांव ही नहीं उस क्षेत्र के अनेक गांवों की महिलाओं ने अपने हाथों में जागृति की मशालें थाम लीं. ऋतु ने पुरुषों की खाप पंचायत की भांति महिलाओं के अधिकार के लिए ’महिला खाप पंचायत’ बना डाली. उसने एक हाथ आगे बढ़ाया और देखते ही देखते सैकड़ों महिलाओं के हाथ आगे आ गये. अब पुरुषों का भी उन्हें साथ मिल रहा है. महिलाओं के अधिकारों के साथ ही स्त्री भ्रूण रक्षा उनके प्रस्तावों में मुख्य हैं. हुडा सरकार ने भी उनकी शक्ति को पहचाना और उस क्षेत्र में महिलाओं के विकास के लिए उन्होंने एक करोड़ रुपए देने की घोषणा  की.

बीबीपुर एक उदाहरण है. लड़कियों और महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों से मुक्ति के लिए देश में सर्वत्र ऎसी खाप पंचायतों की आवश्यकता है, जिससे पुरुष वर्चस्व को तोड़ा जा सके.

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4 टिप्‍पणियां:

  1. aadarniya bhabhi jee main aapki baat se sehmat hote hue ek baat kehnaa chahungaa ki ush varchasva kii jagah uski mansiktaa ko dharashahi
    karna hoga jise barson se samaj ke har ghatak ne taiyaar kiya hai.ye chand log hii hain jo apne aap ko pujvanaa chahte hain.

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  2. इस बार भी एक विचारोत्तेजक विषय पर एक अर्थवान और सार्थक पोस्ट। बधाई !

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  3. Chhaaya ji , sachchhee baat yah hai ki stree stree kee dushman hai .
    Aesee dardnaak ghatnaayen shaayad hee ghaten agar stree kee soch mein
    sudhaar ho . Adhikaansh bahuayen saas ke atyachaaron kee shikaar hain .
    Aapke vichaarniy lekh ke liye aapko badhaaee aur shubh kamnaayen .

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  4. छाया जी,

    आपके आलेख में कही गयी हर बात से सहमत हूँ. नारी महाखाप की आवश्यकता है हर गाँव में, हर नगर में. इन महाखापों में परस्पर तारतम्य की ज़रुरत है और ज़रुरत है राष्ट्रीय स्तर पर एक क्रान्ति की.!

    शुभकामनाओं सहित,

    महेंद्र दवेसर 'दीपक'

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